-चलती का नाम ‘रेलगाड़ी’ ! पूर्व DGP का दावा- रेल हादसे के तुरंत बाद ‘रेलवे’ दो काम करता है…पहला ‘रिकार्ड’ ठीक करना और दूसरा…
सम्वाददाता। पटना।
बालासोर ट्रेन हादसे के बाद रेलवे कटघरे में है. रेल हादसे के बाद रेलवे बोर्ड की तरफ से सफाई आई है. सदस्य जया सिन्हा ने कहा कि सिग्नलिंग में कोई परेशानी नहीं पाई गई. ट्रेन ओवरस्पीड भी नहीं थी. सिर्फ एक कोरोमंडल ट्रेन की दुर्घटना हुई थी. किसी वजह से वो ट्रेन दुर्घनटाग्रस्त हुई, इंजन और कोच इसके मालगाड़ी के ऊपर चढ़ गए. आयरन की मालगाड़ी थी जिस पर कोरोमंडल की बोगी और इंजन चढ़े.आयरन होने की वजह से यात्री ट्रेन को ज्यादा क्षति पहुंची है. कोरोमंडल के डिब्बे डाउन लाइन पर आ गए जिस पर यशवंतपुर ट्रेन गुजर रही थी और आखिरी इसके दो डब्बे डिरेल हो गए. इतनी बड़ी दुर्घटना की वजह अब तक साफ नहीं है. इधर, अपने जमाने के तेजतर्रार आईपीएस व बिहार के पूर्व डीजीपी कहते हैं कि रेल दुर्घटना के बाद रेलवे प्रशासन अपना दामन बचाने को लेकर सबसे पहले दो काम करता है।
बिहार के पूर्व डीजीपी अभयानंद कहते हैं कि पूर्व पुलिस पदाधिकारी की हैसियत से भी मुझे रेल दुर्घटनाओं की बारीकियों की समझ उतनी गहराई में नहीं है। मेरा अनुभव मेरे SRP धनबाद के 4 महीनों के कार्यकाल तक ही सीमित है। उस दौरान भी मुझे स्मरण है कि राजधानी एक्सप्रेस के साथ एक बड़ी दुर्घटना होने से टली थी। उस घटना से मुझे दो बातें समझ में आई थी. पहला यह कि ”जिस पल से रेल दुर्घटना की जानकारी होती है, उसी पल से रेल विभाग के विभिन्न शाखा अपना अभिलेख ठीक करने लगते हैं। कोशिश होती है कि जाँच में उनकी गलती नहीं निकले”। दूसरा..अपना दामन साफ़ करने के बाद, पूरा रेल विभाग एक साथ उस दुर्घटना को तोड़-फोड़ का मामला बना देता है। बड़ी आसानी से वह किसी भी प्रकार की जवाबदेही से मुक्त हो जाता है। एक-दूसरे पर दोषारोपण का एक खेल चलता रहता है।
अभयानंद ने रेल हादसे पर अपना अनुभव साझा करते हुए लिखा कि राजधानी एक्सप्रेस वाले मामले से मुझे यह सीख मिली थी कि सर्वप्रथम दुर्घटना के स्रोत का पता लगाना चाहिए। उस जगह से फिशप्लेट, पेंच और पटरी के टुकड़ों को ढूंढ कर अलग कर लेना चाहिए। इन सभी वस्तुओं को SAIL जैसी संस्था के अनुसंधान प्रयोगशालाओं में भेजना चाहिए। धातुकर्म अन्वेषण के द्वारा बड़ी आसानी से पता लगाया जा सकता है कि मामला सामान्य क्षति का है अथवा तोड़-फोड़ का। जिस कांड का अनुसंधान मैंने किया था, उसमें SAIL की प्रयोगशाला की रिपोर्ट से यह स्पष्ट हो गया था कि मामला तोड़ -फोड़ का नहीं था। वर्षों पहले मुझे स्मरण है कि रेलवे में PWI नियुक्त हुआ करते थे जो स्वयं पटरियों की जांच और मरम्मत का काम किया करते थे। आप उन्हें नियमित रूप से ट्रॉलियों पर घूमते देख सकते थे। ऐसे दृश्य अब कम ही देखने को मिलते हैं। मानवीय प्रक्रियाओं को जारी रखने के बजाय, तकनीकी प्रक्रियाओं पर चर्चा होती रहती है। समय के साथ-साथ, रेलवे भी यूँ ही चलता रहेगा।